भक्ति कथा- जब भगवान भक्त के घर नौकर बन कर आए!

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भक्ति कथा

भक्ति कथा- जब भगवान भक्त के घर नौकर बन कर आए! अनेक वर्षों से रोते हुए भक्त त्रिलोचन जी का बुरा हाल था। आज रोते हुए भक्त, नामदेव जी से कहने लगे, नामदेव! तुम तो मेरे दोस्त हो ना! फिर भी कितने निष्ठुर हो और कितनी बार तुमने परमात्मा का दर्शन किया है।

उसके बाद भी कभी उनसे यह नहीं कहा कि त्रिलोचन से भी मिलकर आओ।
मेरे मन में कितनी इच्छाएं हैं परमात्मा मेरे घर आएं, मैं उनकी सेवा करूं।
क्या मेरी पुकार को परमात्मा नहीं सुनता है।

तब भक्त नामदेव हंसते हुए कहने लगे- अरे भक्तराज!! ऐसा क्यों बोलते हो?
मैं तो सिर्फ “नाम” की कमाई करता हूं।

तुम तो “सेवा” की कमाई करते हो। तुम्हारे पास जितना धन है, तुम संतों की सेवा में लगा देते हो।

संतों की प्रसन्नता से ऊपर परमात्मा की प्रसन्नता भी नहीं है।
तुम्हारे ऊपर तो संतों, महापुरुषों का आशीर्वाद है।

तुम योग्य हो, तभी तो गुरुदेव श्री ज्ञानदेव महाराज जी ने तुम्हें अपना शिष्य बनाया है। तुम मेरे गुरु भाई हो, मुझे ऐसा उलाहना क्यों देते हो?
तब भक्त त्रिलोचन जी रोते हुए कहने लगे, मैं कितने वर्षों से भगवान का इंतजार कर रहा हूं।

एक बार भी भगवान को ऐसा नहीं लगा, वह मेरे घर भी दर्शन देकर जाएं।
भक्त नामदेव जी कहने लगे, तुम चिन्ता न करो अब जब मेरा परमात्मा से मिलना होगा मैं उन्हें कहूंगा… कि-
त्रिलोचन भी आपको बहुत याद करता है, उसे दर्शन देकर आओ… दिन व्यतीत होने लगे।

एक दिन नामदेव जी कहीं यात्रा पर जा रहे थे, मार्ग में रास्ता भटक गए।
अब मार्ग बताने वाला तो कोई था नहीं।

उस मार्ग के चौराहे पर एक मूर्ति स्थापित थी। अब नामदेव जी तो पूर्ण भक्त थे।
किसी राजा की वह मूर्ति थी। उस मूर्ति को देखकर कहने लगे, वाह परमात्मा !! आज तो इतना सुंदर रूप बना रखा है, और मैं मार्ग में भटक गया हूं।

तुम यहां तलवार लेकर खड़े हो। जल्दी से बताओ, मैं किस ओर जाऊँ ? मुझे उस गांव में जाना है। तब उसका मार्ग कहां से पड़ेगा ?
कहते हैं, नामदेव जी की पुकार सुन कर वह जो राजा की मूर्ति थी उसमें से साक्षात् परमात्मा प्रकट हो गए।

उस मूर्ति से निकलकर भक्त नामदेव जी को परमात्मा ने मार्ग दिखाया।
अब जैसे ही भक्त नामदेव जी अपने मार्ग की ओर बढ़ने लगे…
तब उन्हें याद आ गया कि, भक्त त्रिलोचन जी ने कहा था परमात्मा से पूछ कर रखना। मुझे दर्शन कब देंगे?
नामदेव जी भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे, अरे रुकिए ! इतनी जल्दी जाने की नहीं है।

मेरी एक बात सुनिये, मेरा जो मित्र है “भक्त त्रिलोचन” वह आपका सच्चा भक्त है। वह पूछ रहा था- कभी उसका भी भला करो। कभी उसको भी दर्शन दो।
श्री कृष्ण ने हंसते हुए कहा, मैं उसके पास अवश्य जाऊंगा। बस उससे कहना मुझे पहचान ले। ऐसा कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए।

नामदेव जी गांव की यात्रा कर, अपने गांव में पुनः लौट आये। और भक्त त्रिलोचन जी के घर आकर कहने लगे, तुम्हें एक अच्छी खबर देने आया हूं ।
आज मेरी परमात्मा से मुलाकात हुई, उन्होंने कहा है वह जल्दी ही तुम्हारे घर आएंगे। पर पहचानना तुम्हें ही पड़ेगा।

भक्त ‘नामदेव’ जी की बात सुनकर त्रिलोचन जी प्रसन्न हो गए। उनकी आंखों में खुशी के आंसू आने लगे।
कहने लगे- परमात्मा मेरे पास चलकर आयेंगे, इससे अच्छा मेरा सौभाग्य, सद्भाग्य और क्या हो सकता है? अपनी धर्मपत्नी को बुलाकर कहने लगे, तुम्हें पता है !! परमात्मा हमारे पास आने वाले हैं। अब तुम जल्दी से तैयारी करना, उनकी अच्छे से सेवा करना, भगवान हमारे पास आएंगे।

अब संत तो बड़ी भारी मात्रा में भक्त त्रिलोचन जी के पास भंडारा खाने आते थे।
एक दिन त्रिलोचन भक्त की धर्मपत्नी जी ने कहा, इतनी अधिक मात्रा में संत हमारे पास आते हैं। कोई नौकर हो तो काम बढ़िया हो जाय।

बिना नौकर के मैं अकेले सारा काम नहीं कर पाती। आप कुछ प्रयास करो, किसी नौकर को लेकर आओ, जो घर में मेरी सहायता करें।

आजकल नौकर मिलना कठिन हो गया है और ईमानदार नौकर मिलना तो और भी अधिक कठिन है पर मैं प्रयास करता हूं। कोई मिल जाए तो उसे अवश्य लेकर आऊंगा। पैसों की तो कोई कमी थी ही नहीं।

एक दिन प्रातः काल भक्त त्रिलोचन जी संतो के भंडारे के लिए सब्जियां लेने गए। तब उस सब्जी मंडी में एक नौजवान भागता हुआ भक्त त्रिलोचन जी के पास आकर कहने लगा, अरे सेठ जी! मुझ पर दया करो।

भक्त जी ने पूछा, क्या करना है? कहा, महाराज! मेरे पास खाने को कुछ नहीं है। पहनने के लिए कपड़े भी नहीं है। पर में काम करने में बड़ा होशियार हूं, आप मुझे अपने पास नौकर रख लीजिए।

भक्त त्रिलोचन जी पूछने लगे, तुम्हें धन में क्या चाहिए? तब वह नौजवान कहने लगा, मुझे धन की आवश्यकता नहीं है। बस दो समय भरपेट भोजन खिला देना और मेरी एक शर्त है, मेरे बारे में किसी से भी कोई बुराई मत करना, बस। जिस दिन आपने मेरी बुराई कर दी, मैं आपके घर को छोड़ कर चला जाऊंगा।

भक्त जी ने पूछा, यह कैसी शर्त है। कोई तुम्हारी बुराई करें और तुम भाग जाओगे। कहा, मेरी यही शर्त है। इसलिए कोई मुझे नौकरी पर रखता ही नहीं है। अगर आप रखना चाहो तो मैं आपके पास आ सकता हूं। त्रिलोचन जी विचार करने लगे, वैसे ही धर्म पत्नी ने कहा था, नौकर की आवश्यकता है और यह लगता भी ईमानदार है।
भक्त जी ने पूछा नाम क्या है? कहा, मेरा नाम “अंतर्यामी” है।
और कहा- सब कुछ जानता हूं।
त्रिलोचन जी ने कहा.. सब कुछ जानने का मतलब क्या है?
वह नौजवान कहने लगा, अरे गांव में इतने सालों से रहा हूं तो सबकी बातें जानता हूं।

कौन क्या करता है? किसका स्वभाव कैसा है? कौन कैसे चलता है? इसलिए मेरा नाम अंतर्यामी है।
भक्त जी ने कहा- ठीक है। आज से तुम मेरे पास नौकरी करोगे।
यह सामान उठाओ और मेरे साथ मेरे घर चलो।
अब भक्त जी उस नौजवान को अपने घर लेकर आए।
अपनी धर्म पत्नी से कहने लगे- यह नौजवान तुम्हारी सहायता करेगा। इसका नाम ‘अंतर्यामी’ है।

धर्मपत्नी पूछने लगी, यह हर महीने कितने पैसे लेगा?
तब वह नवयुवक कहने लगा, अरे माताजी! पैसों की आवश्यकता नहीं है, मुझे भरपेट खाना खिलाना।

आपने भोजन करा दिया, मैं तृप्त हो जाऊंगा। मुझे भोजन के अतिरिक्त पैसों की आवश्यकता है ही नहीं, बस प्रेम से रखना।
किसी को मेरी बुराई ना करना, अगर किसी के पास मेरी बुराई करोगी, तो मैं गायब हो जाऊंगा।

उस नौजवान की बातें सुन, भक्त और भक्तानी प्रसन्न हो गए।
अब वह भी मन से काम करने लगा। संतों की जितनी बड़ी मंडली घर पर आती, भक्त त्रिलोचन जी उनको भोजन खिलाते..
यह नौजवान जल्दी से जल्दी सामान लेकर आता, सब्जियां काट कर देता, भोजन बना देता और भी जितना समय बचता, उसमें घर की साफ सफाई भी कर देता।

भक्तजी और भक्त की धर्मपत्नी दोनों इस नौजवान से बड़े प्रसन्न थे। पर नौजवान में कुछ कमी थी। वह यह थी कि- जब यह खाना खाने बैठता था, तो भक्तन जी खाना बनाते- बनाते थक जाती थी। पर यह नौजवान खाते हुए नहीं थकता था।

अब किसी को कुछ बोल भी न पाए। क्योंकि अगर किसी को कुछ बुराई कर दी तो नौकर भाग जाएगा और नौकर इतना बढ़िया था कि किसी काम मैं कोई दिक्कत आने ही नहीं देता था।

एक दिन थक हार के त्रिलोचन जी की पत्नी अपने पड़ोस में, पड़ोसन से मिलने गई।
पड़ोसन ने पूछा- अरे कैसी हो?
कहने लगी- सब कुछ ठीक है।
पड़ोसन ने कहा- भक्तानी जी! चेहरे का रंग उड़ गया है? पहले तो बड़ी प्रसन्न लगती थी।

आजकल नौकर रखा है तो काम कम होना चाहिए। तुम्हारा चेहरा तो उतरता जा रहा है।

भक्तानी जी कहने लगी- क्या बताऊं? अभी कुछ कहने ही वाली थी नौकर के बारे में, तो याद आ गया। अगर मैंने बुराई करी, तो मेरा नौकर भाग जाएगा।
तब पड़ोसन पूछने लगी- अरे चिंता ना करो! बताओ क्या बात है? मन उदास क्यों है? तब भक्तानी कहने लगी- सब कुछ ठीक है। परमात्मा की दया से किसी वस्तु की कमी नहीं है। तो फिर इतना परेशान क्यों हो? शरीर इतना कमजोर क्यों हो गया है?

तब भक्त त्रिलोचन जी की धर्मपत्नी कहने लगी- संतों की दया से संतों की सेवा तो अच्छी हो जाती है। नौकर भी अच्छा है, पर उस नौकर में एक कमी है। कहा- बताओ-बताओ क्या कमी है?
कहा- जब खाने बैठता है तो रसोई का सारा सामान खत्म कर जाता है।
इतना खाता है, इतना खाता है, कि मैं रोटी पकाते-पकाते थक जाती हूं पर वह खाते खाते नहीं थकता।

भक्तानी जी ने इस प्रकार अपने नौकर की बुराई की और उधर वहां नौकर अदृश्य हो गया। थोड़ी देर बातें करके जब त्रिलोचन जी की घरवाली अपने घर आयी, तो बुलाने लगी- अंतर्यामी कहां हो? अंतर्यामी कहां हो? पर अंतर्यामी तो जा चुके थे।

भक्त त्रिलोचन जी भी अपने घर आए! पूछने लगे- आज अंतर्यामी कहां है?
धर्मपत्नी कहने लगी- बहुत देर से तो मुझे दिखाई नहीं दे रहा है ।
भक्त जी ने कहा- तुमने कुछ कहा होगा उसे? वह नाराज हो कर चला गया होगा।

भक्तानी जी कहने लगी- मैंने कुछ भी नहीं कहा है।
कहा- किसी से बुराई की तुमने।
बोलीं- हाँ, आज मेरे से बुराई हो गई थी। मैं अपने पड़ोस में अपनी सहेली के पास गई थी।

उसने पूछा- कमजोर क्यों लग रही हो?
मैंने उससे कहा- जब यह नौकर भोजन खाना प्रारंभ करता है तो इतना खाता है, मैं पकाते-पकाते थक जाती हूं, यह खाते नहीं थकता।
त्रिलोचन जी का इतना सुनना था तो आंखों में आंसू आ गए।
कहा- तुमने यही तो गलत कर दिया। उसने पहले ही कहा था- अगर तुम उसकी बुराई करोगी तो वह चला जाएगा।

अब इस प्रकार भक्तजी का और भक्तानी जी का झगड़ा चल ही रहा था।
तभी नामदेव जी बाहर से गुजरे।
नामदेव जी पूछने लगे- त्रिलोचन जी ठीक हो? अब तो तुम्हारे घर नौकर भी आ गया है। अब तो भक्तानी जी प्रसन्न होंगी।
नामदेव जी को देखकर, त्रिलोचन जी भागते हुए नामदेव जी के चरणों में जाकर कहने लगे…

अरे! आज ही इसने नौकर को भगा दिया है। इतना प्यारा था, इतना दयालु था, सारे काम खुद ही कर देता था।
मैं भगवान की पूजा करना प्रारंभ करता था, उससे पहले ही भगवान को स्वयं पहरा देता था।

नामदेव जी, त्रिलोचन जी की बात सुनकर हंसने लगे और पूछने लगे- कहां गया?- भाग गया।
नामदेव जी और जोर से हंसने लगे।
त्रिलोचन जी कहने लगे- आप मेरे मित्र हो, मैं आपको अपनी व्यथा बता रहा हूं। कि मेरा नौकर भाग गया है और आप प्रसन्न हो रहे हो।
नामदेव जी कहने लगे- त्रिलोचन जी! आप अपने नौकर को पहचान ही नहीं पाए।

वह तुम्हारा नौकर नहीं वह सारे जगत का मालिक था।
वह परमात्मा तुम्हारे पास संतों की सेवा करने आए थे। तभी तो उन्होंने अपना नाम अंतर्यामी बताया था।
वह तुम्हारे घर रहते थे, तुम्हारी धर्मपत्नी ने उसकी बुराई दूसरे घर में की, तब भी उसने सुन ली।

इतनी दूर, बताओ कोई किसी की बात सुन सकता है?
जब भक्त नामदेव जी ने इस प्रकार कहा कि परमात्मा तुम्हारे घर नौकर बन कर आया था। तो भक्त और भक्तानी जी के नेत्रों से आंसू आने बंद नहीं हो रहे थे।
कहने लगे- हमसे बड़ा अपराध हो गया है।
हमें परमात्मा की सेवा करनी चाहिए थी पर हमने कितना बड़ा अपराध किया है। परमात्मा को संभाल नहीं सके।

परमात्मा जो सबको भोजन खिलाते हैं, हम उसे भोजन खिलाते थे। तब भी हमारा मन उसके प्रति बुरा भाव रखता। अतः परमात्मा हमें क्षमा करें।
नामदेव जी एक बार पुनः भगवान जी से प्रार्थना कीजिए, हमें दर्शन देने आएं।
हमें दर्शन देने आएं, हमारी भूल क्षमा करें नहीं तो यह जीवन व्यर्थ चला जाएगा।
नामदेव जी कहने लगे- चिंता ना करो। वह परमात्मा यहीं मौजूद हैं पर तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है।

सच्चे दिल से प्रार्थना करो, वह पुनः प्रकट हो जाएंगे।
इस प्रकार त्रिलोचन जी, उनकी धर्मपत्नी परमात्मा को याद करने लगे।
तभी भगवान श्री कृष्ण वहां प्रकट होकर कहने लगे- अरे क्यों उदास होते हो?
मैं अपनी स्वेच्छा से तुम्हारे पास सेवा करने आया था।
तुमने जो संतों की सेवा की उस पर प्रसन्न होकर मैं तुम्हारे पास चल कर आया था।

त्रिलोचन जी कहने लगे- अब हम से दूर ना जाइए। हमारे पास रहिए।
भगवान ने कहा- तुम किसी प्रकार का विचार ना करो। जब तक यह शरीर है, तुम संतों की सेवा करो, भक्तों की सेवा करो।
जब यह शरीर शांत हो जाएगा, तब तुम मेरे लोक में आकर मेरी सेवा करोगे।
परमात्मा अपने भक्त के लिए नौकर बन कर आए, झाड़ू-पोंछा किया, सफाई की, लकड़ी तोड़कर लाए, सब्जियां काटी, भक्तों का सामान उठाया, संतों की सेवा की।
परमात्मा राजी हो जाता है। आपके प्रेम पर आपके निश्चल मन पर।

भक्ति कथाओं से साभार।

*आचार्य हर्षमणि बहुगुणा